विकार की पतन है
वह धर्मात्मा गृहस्थ मुनिराज के पास बैठा धर्मोंपदेश सुन रहा था, उसे अपने आत्म संयम पर बड़ा गौरव था। उसी समय मुनिराज के दर्शनार्थ कुछ महिलाएं आई तो भक्त से उनकी ओर देखे बिना न रहा जा सका। पहली बार तो देखने पर मुनिराज कुछ न बोले किंतु जब यह देखने को क्रम जारी रहा तो मुनिराज बोले- ‘वत्स! प्रायश्चित लो!”
“प्रभो! मेरा अपराध?”
‘ओह! अपराध करते हुए भी उसे अपराध नहीं समझते। वत्स! एक बार तो किसी की दृष्टि किसी ओर जा सकती है, परन्तु दुबारा तो किसी के विकारी नेत्र ही उठेंगे। और आत्मा में विकार आना पतन का श्री गणेश है।” यह सुनकर धर्माभिमानी ने लज्जित हो अपने दोनों हाथ जोड़ दिये।