जब आवे सन्तोष धन
महर्षि रमण की लंगोटी फट गई थी, तो वह दो सूखे काँटे ले आये, उनसे लंगोटी छेद करके लंगोटी सी डाली। अपनी फटी लंगोटी को झाड़ में छिपाकर रख देते, क्योंकि यदि शिष्य फटी लंगोटी देख लेगे तो नयी ला देंगे। एक शिष्य ने यह सब देखकर नया लंगोट ला ही दिया तो रमण ने उत्तर दिया-मेरा इन दो लंगोटी से काम चल रहा है, मुझे नये की कुछ आवश्यकता नहीं है।